Ghazipur News: भारत की लोक संस्कृति में अनेक रंग और परंपराएँ समाई हुई हैं। इन्हीं में से एक है रामलीला मंचन, जो कभी गांव-गांव में धार्मिक...
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Purvanchal Samachar |
समाजसेवी सुजीत यादव ने कहा कि यह परंपरा अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है, जबकि यह भारत की सांस्कृतिक धरोहर का अहम हिस्सा है।
उन्होंने बताया कि पहले नन्दगंज और चाँडीपुर सहित आसपास के क्षेत्रों में श्राद्ध पक्ष से लेकर दशहरा तक रामलीला का आयोजन धूमधाम से किया जाता था।
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Purvanchal News |
कन्या बालिकाएँ मिट्टी की राम-सीता प्रतिमा बनाकर घर-घर स्थापित करतीं और महिलाएँ-लड़कियाँ भजन-कीर्तन करतीं। पूजा और प्रसाद वितरण से पूरे समाज में सहभागिता और सामूहिकता का भाव गहराता।
रामलीला का समापन दशहरा पर रावण दहन से होता था, जो केवल धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं बल्कि एक बड़े सांस्कृतिक मेले का रूप ले लेता था।
चाँडीपुर के मौनी बाबा धाम में आयोजित यह मेला लोकगीतों, झूलों, पारंपरिक खेलों, व्यंजनों और चहल-पहल से गुलजार रहता।
लेकिन आज शहरीकरण, व्यस्त जीवनशैली और आधुनिक मनोरंजन साधनों के चलते यह परंपरा लगभग विलुप्त हो गई है। अब न तो गलियों में राम-सीता के गीत सुनाई देते हैं और न ही दशहरे के मेले की रौनक दिखाई देती है।
सुजीत यादव ने कहा कि रामलीला केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं थी, बल्कि समाज को जोड़ने का माध्यम भी थी। इसमें सामूहिक श्रम, सहयोग और भाईचारे का गहरा संदेश छिपा है। यदि आने वाली पीढ़ियों को अपनी जड़ों से जोड़े रखना है तो इस परंपरा को पुनर्जीवित करना होगा।
उन्होंने सुझाव दिया कि स्कूलों, सांस्कृतिक संस्थाओं और सामाजिक संगठनों को मिलकर इस दिशा में पहल करनी चाहिए। क्योंकि किसी भी समाज की पहचान उसकी लोक संस्कृति से होती है और रामलीला भारत की उसी पहचान का अनमोल हिस्सा है।